Tripursundari Ved Gurukulam - रुद्रपूजा-रूद्राभिषेक

 
।। ॐ नमः शिवाय ।।

रुद्र पूजा  शिव आराधना शिव आराधना का ही एक अंग है—


शिव में ही सारी दुनिया समाहित है। जगत के कण-कण में है महादेव का वास है, तभी तो महादेव हर रूप में करते हैं भक्तों का कल्याण. फिर चाहे महादेव की प्रतिमा की पूजा हो या फिर लिंग रूप उनकी आराधना।
पृथ्वी पर शिवलिंग को शिव का साक्षात स्वरूप माना जाता है तभी तो शिवलिंग के दर्शन को स्वयं महादेव का दर्शन माना जाता है और इसी मान्यता के चलते भक्त शिवलिंग को मंदिरों में और घरों में स्थापित कर उसकी पूजा अर्चना करते हैं. यू को भोले भंडारी एक छोटी सी पूजा से हो जाते हैं प्रसन्न लेकिन शिव आराधना की सबसे महत्वपूर्ण पूजा विधि रूद्राभिषेक को माना जाता है।

ऐसी मान्यता है कि जल की धारा भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है ‘ शिवं अभिषेक प्रियः’ उसी से हुई है रूद्रभिषेक की उत्पत्ति. रूद्र यानी भगवान शिव और अभिषेक का अर्थ होता है स्नान करना. शुद्ध जल या फिर गंगाजल से महादेव के अभिषेक की विधि सदियों पुरानी है क्योंकि मान्यता है कि भोलभंडारी भाव के भूखे हैं. वह जल के स्पर्श मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं. वो पूजा विधि जिससे भक्तों को उनका वरदान ही नहीं मिलता बल्कि हर दर्द हर तकलीफ से छुटकारा भी मिल जाता है.

साधारण रूप से भगवान शिव का अभिषेक जल या गंगाजल से होता है परंतु विशेष अवसर व विशेष मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए दूध, दही, घी, शहद, चीनी, गन्ने का रस, सरसों तेल, काले तिल, आदि कई सामग्रियों से महादेव के अभिषेक की विधियाँ प्रचिलत है।
कैसे महादेव का अभिषेक कर आप उनका आशीर्वाद पाएं उससे पहले ये जानना बहुत जरूरी है कि किस सामग्री से किया गया अभिषेक आपकी कौन सी मनोकामनाओं को पूरा कर सकता है।
 साथ ही रूद्राभिषेक को करने का सही विधि-विधान क्या हो क्योंकि मान्यता है कि अभिषेक के दौरान पूजन विधि के साथ-साथ मंत्रों का जाप भी आवश्यक माना गया है फिर महामृत्युंजय मंत्र का जाप हो, गायत्री मंत्र हो या फिर भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र।
 
शिवलिङ्ग पूजन का प्रारम्भ एवं महत्त्व
शिवलिङ्ग के पूजन प्रारम्भ होने के सम्बन्ध में एक पौराणिकी कथा प्राप्त होती है कि-दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में शिवजी का भाग नहीं रखा, जिससे कुपित होकर सती पार्वती ने दक्ष के यज्ञमण्डप में योगाग्नि द्वारा अपना शरीर जलाकर प्राण त्याग कर दिया। सती के शरीर के त्यागे जाने का समाचार सुनकर शिवजी अत्यन्त कुपित हो गये और वे नग्नावस्था में पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे। एक दिन वह नग्नावस्था में ही ब्राह्मणों की बस्ती में पहुँच गये। शिवजी के नग्न स्वरूप को देखकर ब्राह्मणों की स्त्रियाँ भगवान् शिवजी पर मोहित हो गयीं। स्त्रियों की मोहावस्था को देखकर ब्राह्मणों ने शिवजी को शाप दिया कि ‘इनका लिङ्ग इनके शरीर से तत्काल गिर जाय।’ ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से लिङ्ग उनके शरीर से अलग होकर गिर गया, जिससे तीनों लोकों में घोर उत्पात होने लग गया। 
समस्त देव, ऋषि, मुनि व्याकुल होकर ब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्माजी ने योगबल से शिव-लिङ्ग के अलग होने का कारण जान लिया और वह समस्त देवताओं, ऋषियों और मुनियों को अपने साथ लेकर शिवजी के समीप पहुँचे। ब्रह्माजी ने शिवजी से प्रार्थना की कि-‘आप अपने लिङ्ग को पुनः धारण कीजिये, अन्यथा तीनों लोक नष्ट हो जायेंगे। ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर शिवजी बोले कि-आज से सभी लोग मेरे लिङ्ग की पूजा प्रारम्भ करदें, तो मैं पुनः अपने लिङ्ग को धारण कर लूँगा। शिवजी की बात सुनकर ब्रह्माजी ने सर्व प्रथम सुवर्ण का शिवलिङ्ग बनाकर उसका विधिवत् पूजन किया। पश्चात् देवताओं, ऋषियों और मुनियों ने अनेक द्रव्यों के शिव-लिङ्ग बनाकर पूजन किया। तभी से शिव-लिङ्ग के पूजन का क्रम प्रारम्भ हुआ।
जो मनुष्य किसी तीर्थ में तीर्थ की मिट्टी से शिवलिङ्ग बनाकर उनका हजार बार अथवा लाख बार अथवा करोड़ बार सविधि पूजन करता है, तो वह साधक शिवस्वरूप हो जाता है।जो मनुष्य तीर्थ में मिट्टी, भस्म, गोबर अथवा बालू का शिवलिङ्ग बनाकर एक बार भी उसका सविधि पूजन करता है, वह साधक दस हजार कल्प तक स्वर्ग में निवास करता है।
शिव-लिङ्ग का विधिपूर्वक पूजन करने से मनुष्य सन्तान, धन, धान्य, विद्या, ज्ञान, सद्बुद्धि, दीर्घायु और मोक्ष को प्राप्त करता है।
जिस स्थान पर शिवलिङ्ग का पूजन होता है, वह तीर्थ न होने पर भी तीर्थ बन जाता है।
जिस स्थान पर सर्वदा ही शिव पूजन होता है, उस स्थान पर जिस मनुष्य की मृत्यु होती है, वह शिवलोक को प्राप्त करता है। जो मनुष्य शिव, शिव, शिव, इस प्रकार सर्वदा कहता रहता है, वह परम पवित्र और परम श्रेष्ठ हो जाता है और वह धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को भी प्राप्त करता है।
‘शिव’ शब्द के उच्चारण मात्र से मनुष्य के समस्त प्रकार के पापों का विनाश हो जाता है। अतः जो मनुष्य ‘शिव-शिव’ का उच्चारण करते हुए प्राणत्याग करता है, वह अपने करोड़ों जन्म के पापों से मुक्त होकर ‘शिवलोक’ को प्राप्त करता है।
‘शिव’ शब्द का अर्थ-कल्याण है। अतः जिसकी जिह्वापर अहर्निश कल्याणकारी ‘शिव’ का नाम रहता है, उसका बाह्य और आभ्यन्तर दोनो ही शुद्ध हो जाते हैं और वह शिवजी की समीपता का अधिकारी बन जाता है। ‘शिव’ यह दो अक्षरों वाला नाम ही परब्रह्मस्वरूप एवं तारक है, इससे भिन्न और कोई दूसरा तारक ब्रह्म नहीं है-         (शिव रहस्य)
 
-ः शिवपूजन के लिये विशेष तथ्य:-
कामना भेद से रुद्राभिषेक द्रव्य
१. जल से अभिषेक करने पर शीघ्र ही वृष्टि होती है, एवं ज्वर भी शान्त होता है।
२. कुशोदक से अभिषेक करने पर व्याधियों का शमन होता है।
३. दधि से अभिषेक करने पर पशु आदि की प्राप्ति होती है।
४. गन्ने के रस से अभिषेक करने पर लक्ष्मी की सिद्धि प्राप्त होती है।
५. मधु से अभिषेक करने पर धन की प्राप्ति होती है।
६. तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
७. दूध से अभिषेक करने पर शीघ्र ही पुत्र की प्राप्ति होती है,  और प्रमेह रोग भी नष्ट होता है।
८. घी की धारा से सहस्र नोमों से अभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है।
९. शर्करा मिश्रित दूध से अभिषेक करने पर जड बुद्धि भी श्रेष्ठ बुद्धि में परिवर्तित हो जाती है।
१ॉ. सर्षों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रुओं का शमन होता है।
११. शिवजी का अभिषेक गो शृङ्ग से करना चाहिये (शिवं गवयशृङ्गेण)।
१२. शिवजी के अभिषेक के लिये यजुर्वेदोक्त रुद्री प्रशस्त मानी गयी है।
१३. पवित्र मनुष्य सदा ही उत्तराभिमुख होकर शिवार्चन करें।
१४. मृत्तिका, भस्म, गोबर, आटा, ताँबा और कांस का शिवलिङ्ग बानाकर जो मनुष्य एकबार भी पूजन करता है वह अयुतकल्प तक स्वर्ग में वास करता है।
१५. नौ, आठ, और सात अँगुल का शिवलिङ्ग उत्तम होता है। तीन, छः, पाँच तथा चार अँगुल का शिवलिङ्ग मध्यम होता है। तीन, दो, और एक अँगुल  का शिवलिङ्ग कनिष्ठ होता है। इस प्रकार यथा क्रम से चर प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग नौ प्रकार का कहा गया है।
  १६. शूद्र, जिसका उपनयन सँस्कार नहीं हुआ है, स्त्री और पतित ये लोग केशव या शिव का स्पर्श करते हैं तो नरक प्राप्त करते हैं।                            (स्कन्द पुराण)
१७. स्वयं प्रदुर्भूत बाणलिंग में, रत्नलिंग में, रसनिर्मित लिंग में और प्रतिष्ठित लिंग  में चण्ड का अधिकार नहीं होता।
१८. जहाँ पर चण्डाधिकार होता है वहाँ पर मनुष्यों को उसका भोजन नहीं करना चाहिये। जहाँ चण्डाधिकार नहीं होता है वहाँ भक्ति से भोजन करें। 
(नि.सि.पृ.सं.७२ॉ)
१९. पृथिवी, सुवर्ण, गौ, रत्न, ताँबा, चाँदी, वस्त्रादि को छोड़कर चण्डेश के लिये निवेदन करें। अन्य अन्न आदि, जल, ताम्बूल, गन्ध और पुष्प, भगवान् शंकर को निवेदित किया हुआ सब चण्डेश को दे देना चाहिये।(नि.सि.पृ.सं.७१९)
२ॉ. विल्वपत्र तीन दिन और कमल पाँच दिन वासी नहीं होता और तुलसी वासी नहीं होती। (नि.सि.पृ.सं.७१८)
२१. अँगुष्ठ, मध्यमा और अनामिका से पुष्प चढ़ाना चाहिये एवं अँगुष्ठ-तर्जनी से निर्माल्य को हटाना चाहिये।