Tripursundari Ved Gurukulam - यज्ञ (शतचण्डी, रुद्र महायज्ञ आदि)

 

यज्ञ-विधानम्

 

यज्ञ-ईश्वर का एक प्रकार से यजन ही है।  यह एक  ईश्वर का ऐसा यजन है, ऐसा अर्चन है कि इसमें अग्नि में अग्निहोत्र कर अपने ईश्वर को प्रसन्न करते हैं।


प्रत्येक देवी-देवताओं का यज्ञ-विधान प्राप्त होता है। जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है-

शतचण्डी यज्ञ

शतचण्डी दुर्गासप्तशती के 100 पाठ, सहस्रचण्डी-दुर्गासप्तशती के 1000 पाठ, अयुतचण्डी-दुर्गासप्तशती के 10,000 पाठ, लक्षचण्डी-दुर्गासप्तशती के 100000 पाठ, महायज्ञ।


रुद्रपाठ चार प्रकार के बताये जाते हैं-रुद्राःपञ्च‍विधाः प्रोक्ता।

1. रूपक या षडंगपाठ- सामान्यतया रुद्राष्टाध्यायी का एक-आवर्तन ।

2. रुद्री या एकादशिनी-नमक-चमकाध्याय को मिलाकर रुद्राष्टाध्यायी के 11 आवर्तन करने को ही रुद्री या एकादशिनी कहते हैं।

3. लघुरुद्र- एकादशिनी के ग्यारह आवृत्तियों के पाठ को लघुरुद्रपाठ कहा जाता है।

4.महारुद्र- लघुरुद्र की ग्यारह आवृत्त‌ि अर्थात् कादशिनी की 121 आवृत्ति होने पर महारुद्र यज्ञ सम्पन्न होता है।

5. अतिरुद्र- महारुद्र की 11 आवृत्ति अर्थात् 1331 आवृत्ति होने पर अतिरुद्र यज्ञ सम्पन्न होता है।


विष्‍णुयज्ञ-


विष्‍णुयज्ञ विष्‍णुपरक मन्‍त्रों के द्वारा पाठ एवं अग्निहोत्र करने पर विष्‍णुयज्ञ सम्पन्न होता है। यथा पुरुष-सूक्तम्, विष्‍णुसहस्रनाम, द्वादशाक्षरमन्‍त्रों का पाठ व हवन।

 

लक्ष्मीयज्ञ

 

लक्ष्मीयज्ञ-लक्ष्मीपरक मन्‍त्रों से यज्ञाहुतियाँ दी जाती है।


किसा भी देवी देवता के विशेष आरधन विधि को यज्ञ कहा जाता है।


हमारे गुरुकुल के विद्वानों द्वारा वैदिक विधि से सभी यज्ञ संपादित कराए जाते हैं।