Tripursundari Ved Gurukulam - Aboutus

 

श्री ‌त्रिपुर सुन्दरी वेद गुरुकुलम् (श्रीत्रिपुरसुन्दरी शक्ति समिति)
 

यह वेद गुरुकुल सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय की सुन्दर भावना से ग्राम-निस्तोली साहिबाबाद गाजियाबाद नजदीक भारत सिटी के पास सन् 2014 में संस्‍थापित हुआ है। 
गुरुकुल का संकल्प आचार्य श्रीधीरेन्द्रजी महाराज ने तब लिया था जब उनकी आयु 23 वर्ष की थी। पूज्य आचार्यश्री उस समय श्रीधाम वृन्दावन में अध्ययन-रत थे। उस समय आप ने संस्कृत की विद्या-प्राप्त करने के लिये जो संघर्ष  किया वो वास्तव में वो हृदय को विदीर्ण कर देने वाला है।
उस समय की स्थिति में संस्कृत के विद्यार्थियों (संस्कृत के चाहने वालों) के लिये सम्मान के साथ कोई स्‍थान नहीं था। 
आश्रमों में, गुरुकुलों में इतना भ्रष्टाचार था कि भ्रष्टाचार का भार न उठा सकने वाले छोटे-छोटे ब्राह्मण बालक किसी स्‍थान में दो माह तो किसी स्‍थान में एक वर्ष नौकरों जैसी जीवन व्यतीत करते। इसका आघात उन विद्यार्थियों के जीवन में तो पडा ही साथ में भारतीय संस्कृत पर सर्वाधिक पडा। आज के परिवेष में कोई भी साधारणतया कोई भी बालक संस्कृत नहीं पढना चाहता, न तो कोई भी संस्कृत पढा हुआ पिता अपने बालक को संस्कृत पढाना चाहता।
यदि संस्कृत के प्रति ऐसी ही स्थिति बनी रही तो वेदों को कोई भी नहीं बचा सकता। जो वेदों के, धर्म के ठेकेदार बने  हैं वो भी कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि! उनको तो अपने ही स्वार्थ पूर्ति से समय नहीं है कि वो संस्कृत के लिये कुछ सोच पाएँ।
इन्हीं धर्मघाती विषयों पर विचार करते हुए ‘पूज्य आचार्य श्री’ ने छोटी अवस्‍था में ही इतना बडा संकल्प ले लिया। सन् 2002 में ‘पूज्य आचार्य श्री’ नें माता शारदा पीठ में श्रीमद‍्भागवत कथा प्रवचन के बीच ही ये संकल्प लिया था। ‘पूज्य आचार्य श्री’ नें वहीं पर श्रीत्रिपुरसुन्दरी शक्ति समिति के नाम की घोषणा की थी। 2010 में दिल्ली से समिति का सो./एक्ट के अन्तर्गत रजिस्टेशन प्राप्त हुआ। और ‘आचार्य श्री’ ने परिश्रम करना प्रारम्‍भ किया।
‘पूज्य आचार्य श्री’ का संकल्प है कि संस्कृत के छात्रों को निःशुल्क व्वस्‍थाएँ कुछ इस प्रकार से प्राप्त हों—
आवास (रहने को स्‍थान) प्राप्त हो।
पढने  के लिये सुन्दर गुरुकुल हो।
विद्यार्थी को किसी भी प्रकार का मानसिक दबाव न हो।
सुन्दर सात्विक भोजन प्राप्त हो।
निःस्वार्थ-भाव से विद्याध्ययन कराया जाये।
संक्षिप्त में कहें कि—इन संस्कृत के अध्ययनार्थियों को वो सबकुछ प्राप्त हो जो घरों में अपनी संतानों को प्राप्त होता है। ‘पूज्य आचार्य श्री’ की भी यही इच्छा थी कि संस्कृत के भावी रक्षकों को सुव्यवस्‍थाएँ प्राप्त हों, ताकि संस्कृत पुनः जीवित हो सके। संस्कृति का पुनः जनमानस में स्‍थान मिल सके।
बडे दुःख की बात है कि लोग संस्कृत का आवरण मात्र अपने स्वार्थ साधन के लिये धारण करते है। साधारण से प्रवचनों को सीखकर भोली जनता को मूर्ख बनाने में लगे रहते हैं। जबकी उनको अपने ही विषय में जानकारी नहीं  है। स्वयं अपने जीवन में उन उपदोशों को धारण नहीं कर पाते और समाज को धारण करने का उपदेश देते रहते हैं और समाज को अन्‍धकार के गहरे गर्त में धकेलते रहते हैं। ऐसे लोगों का मुखौटा धीरे-धीरे समाज में प्रकाशित हो रहा है। और उनको दण्डित भी किया जा रहा है। हमें किसी की आलोचना से मतलब नहीं है। हमारा तो मात्र संस्कृत जीवित रहे ताकि वेद जीवित रह सकें। और यह वसुधा (पृथिवी) जीवित रह सके।
बस इन्ही सब बातों को मनन-चिन्तन करते हुए ‘पूज्य आचार्य श्री’ नें एक ऐसे गुरुकुल निर्माण कराने का संकल्प ले लिया जिसमें ये सभी सुविधायें प्राप्त हो सके। ‘पूज्य आचार्य श्री’ निरन्तर यही कहते हैं कि हम ये नहीं कहते कि संस्कृत को हम बचा लेंगे या संस्कृत को वही पुराना संम्मान दिला पाएँगे। ‘पूज्य आचार्य श्री’ का मात्र इतना कहना है कि भविष्‍य-फल हमारे वर्तमान के कर्तव्य में ही छिपा होता है। अर्थात् हम प्रयास तो कर ही सकते हैं संस्कृत को बचाने का।
यदि संकल्प और अपने कर्म पवित्र हों तो कार्य व संकल्प की पूर्ति निश्चित होती है।
समाज के प्रत्येक व्यक्ति से ‘पूज्य आचार्य श्री’ का कथन है कि ये सबके हित के लिये है अतः सबको मिलकर प्रयास करना चाहिये। हमें आशा है कि समाज हमारा साथ देगा।
संस्कृति चाहते हो तो संस्कृत को पुनः जीवित करना होगा। 
उदाहरणार्थ—यदि पुत्र माता-पिता को भुला दे तो माता-पिता की सेवा कौन करेगा, उन्हें पानी-भोजन आदि की व्यवस्‍था कौन करेगा। यदि बूढे माता-पिता को भोजन नहीं मिलेगा, पानी प्राप्त नहीं होगा तो वो तडप-तडप कर मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे। बूढे माता-पिता को पानी मिले ऐसा चाहते हैं तो संस्कार देना होगा, संस्कार कहाँ मिलते हैं? सच्चे आचार्य के पास! सच्चा आचार्य कौन बनाता है? समाज! समाज यदि समुचित व्यवस्‍था  देगा तो ब्राह्मण-बालक वेदों का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेगा। और समुचित ज्ञान, सुन्दर संस्कृति की शिक्षा समाज को दे पायेगा।
आज उस पराम्बा माता त्रिपुरसुन्दरी की असीम अनुकम्पा से एक एसे गुरुकुल का निर्माण हो चुका है जिसका शिलान्यास 2012 में हो चुका है। और ‘पूज्य आचार्य श्री’ के अथक परिश्रम से मात्र दो वर्षों में निर्माणकार्य हो चुका है और 3 अगस्त 2014 को 20 ब्राह्मण बालकों के साथ प्रारम्‍भ कर दिया है। प्रथम सत्र में 20 बालक थे। द्वितीय सत्र में संख्या में वृद्घि हुई है आज 50 ब्रह्मचारियों की सेवा गुरुकुल कर रहा है। वेद, व्याकरण, ज्योतिष, साहित्य, आयुर्वेद, अंग्रेजी आदि की शिक्षा क्रमबद्घता से दी जा रही है।
अपेक्षा है आपसे कि आप भी आयें देखें और अपना सहयोग गुरुकुल के हित में दें।
समाज के लिये किया गया सत्कर्म अनेक प्रकार की विकृतियों से बचा सकता है।